सपिड़ विवाह अनुचित है,समगोत्री नही 

सपिड़ विवाह अनुचित है,समगोत्री नही 


                कृष्ण देव सिंह
आजकल कुछ मनुवादियों ने विवाह को लेकर नये शिरे से विमंर्श शुरु किया है जिसका उद्येश्य समगोत्री विवाह को वर्जित करना है तथा उन जातियों की प्परम्परा को संस्कृत के विभिन्न श्रलोकों  व मनुस्मृति यादि ब्राम्हण ग्रंन्थों को घर्म ग्रन्थ की मान्यता दिलाना है।क्योंकि  तथाकथित' इन ग्रन्थों की मान्यता और उपयोगिता लगभग समाप्त हो चुका है। हमारे वैदिक साहित्य और सनातन घर्म वार = वार कहता है कि सापिण्ड विवाह नहीं करना चाहिए लेकिन समगोत्री विवाह को अनुचित नहीं कहा गया है। हलांकि श्री कृष्ण ने तो इन मान्यताओं को भी तार-तार करके स्वंम समगोत्री विवाह किया है और कई विवाह करवायें हैं।
     हिंदू धर्मग्रंथों में 12 से लेकर 40 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति (2/ 27) में 12, पारस्कर गृह्य सूत्र में 13, वैखानस धर्म सूत्र में 18, गौतम धर्म सूत्र में 40 तथा शेष में 16 संस्कारों का उल्लेख हुआ है। सम+कृ+घञ्= संस्कारः का अर्थ शुद्ध करना, परिष्कृत करना, पवित्र करना इत्यादि होता है। 16 संस्कारों के नाम इस प्रकार हैं - (1) गर्भाधान (2) पुंसवन (3)सीमंतोन्नयन (4) जातकर्म (5)नामकरण(6)निष्क्रमण(7) अन्नप्राशन(8) चूड़ाकरण (9)कर्णवेध(10) विद्यारंभ (11)उपनयन (12) वेदारंभ (13) केशांत (14)समावर्तन (15)विवाह (16)अंत्येष्टि । हिंदू-समाज में विवाह को पूर्णताबोधक संस्कार बताया गया है।  वेदव्यास का  कथन- "पतयोsर्धेन चार्धेन पत्न्योभुवन्निति स्मृतिः। यावन्न विदन्ते जायां तावदर्धो भवेत् पुमान्।।"  अर्थात् आधे से पति और आधे से पत्नी होती है। यही कारण है कि पत्नी अर्धांगिनी कहलाती है।जब तक पुरुष विवाह नहीं करता, तब तक वह अधूरा रहता है।
            प्रश्न है कि विवाह हो तो किस प्रकार की कन्या या वर से हो? विवाह के पूर्व किस-किस बात पर विचार किया जाना चाहिए। विमर्श करने के पूर्व विवाह और इसके अन्य समानार्थी शब्दों पर भी एक नजर डाल लेनी चाहिए।
    वि(उपसर्ग)+वह्(धातु) + घञ् (प्रत्यय)= विवाहः का शाब्दिक अर्थ होता है - विशेष रूप से वहन करना या पत्नी का दायित्व-निर्वाह। विवाह करने वाला 'विवाह्य'  कहलाता है , जबकि करने वाली 'विवाह्या'। विवाह के बाद दोनों क्रमश विवाहित और विवाहिता कहलाते हैं।  इसके लिए उद्वाह, परिणय, पाणिग्रहण, उपयम इत्यादि शब्द भी प्रयुक्त होते हैं। उद्+ वह्+ घञ् = उद्वाहः का अर्थ होता है पति द्वारा ले जाया जाना। वर कन्या को उसके पिता के घर से अपने घर ले जाता है। परि(उप०)+नी(धातु)+अप् /ल्युट्= परिणय/परिणयन का अर्थ होता है साथ-साथ अग्नि की परिक्रमा करना।  कहते हैं, अग्नि को साक्षी मानकर उसकी सात बार परिक्रमा (सात फेरे) के बाद ही परिणय संपन्न माना जाता है।अग्नि के फेरे लेने के पूर्व कन्या 'परिणेया' कहलाती है, जबकि फेरों के बाद 'परिणीता'। पाणिग्रहण का शाब्दिक अर्थ होता है-  वर द्वारा कन्या का दायाँ हाथ (मंत्रोक्त विधि से) पकड़ा जाना ।इसी के बाद से  उद्देश्य बताए गए हैं - (1)धर्मपालन, (2) संतान-प्राप्ति, (3) यौन-सुख एवं (4) व्यक्तिगत-पारिवारिक जीवन का सम्यक् प्रबंधन। ऋषियों ने धर्म-विरुद्ध काम की निंदा की है। हिंदू-विवाह-नियम विवाहार्थी को मुख्य रूप से तीन बातों पर ध्यान देना चाहिए- (1) गोत्र, (2)  प्रवर तथा (3) पिण्ड।
गोत्र :
गोत्र (गो+त्र ) के कई अर्थ होते हैं; जैसे -गौ रक्षक (गोत्राता), गायों का समूह, गोशाला, दुर्ग, पर्वत, वंश या कुल इत्यादि। यहाँ 'गोत्र' का सांदर्भिक अर्थ कुल अथवा कुल का प्रतिनिधित्व करने वाला पूर्व पुरुष है।उत्तरवैदिक काल आते-आते गोत्र का विकास पूरी तरह हो चुका था। इसी काल में सगोत्र विवाह को वर्जित ठहराया गया। बौद्ध काल में विवाह के लिए वाम्हणों में गोत्र का महत्व बढ़ चुका था।  क्योंकि  समगोत्री की संख्या कम होने से सापिण्ड होने का खतरा भी उत्पन्न हो गया ।तब सगोत्री विवाह को निषेध करार देने के सिवा उनके पास कोई दुसरा चारा नहीं रह गया I यह रिवाज आज भी उनमें कायम है।इसका प्रमाण 'मज्झिम निकाय' में मिलता है । इसके अनुसार, यदि कोई पुरुष किसी युवती से प्रेम करता है तो उसका गोत्र जान लेना चाहिए; क्योंकि उससे विवाह करना ही पड़े तो समगोत्र का दोष न लगे। दूसरे शब्दों में, विषमगोत्री कन्या से ही प्रेम करने की अनुमति थी। लेकिन, प्रेम तो प्रेम होता है। उपनिषदों में कश्यप, भारद्वाज,  गार्ग्य, अश्वलायन, भार्गव, कात्यायन,  गौतम प्रभृति ऋषियों के नाम पर गोत्र का अनेकत्र उल्लेख हुआ है। बाद चलकर इन जैसे ऋषियों के नाम पर वंशगत गोत्र का विकास हुआ। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद का हिंदू समाज विशेषकर ब्राम्हण,राजपूतों में सगोत्र विवाह के प्रति असहिष्णु हो गया था। ब्राम्हण रचित तथा कथित धर्मशास्त्रकारों ने व्यवस्था दी कि सगोत्र कन्या से माँ-बहन के समान व्यवहार करना चाहिए। यदि जाने-अनजाने ऐसा विवाह हो जाए तो प्रायश्चितस्वरूप 'चांद्रायण व्रत' करना चाहिए। अपरार्क, आपस्तम्ब प्रभृति ने समान गोत्र और प्रवर वाली कन्या से विवाह करने वाले ब्राह्मण की संतान को चांडाल तथा पिता को नरकगामी बताया। इस कठोर प्रतिबंध के बावजूद राजपरिवारों में सगोत्र और सपिण्ड विवाह होते रहे हैं। पिता की 7 और माता की 5 पीढ़ियों के अंदर आने वाले लड़के-लड़की से विवाह की पूरी मनाही थी; क्योंकि वे न केवल गोत्र, बल्कि पिण्ड (रक्त कण) के लिहाज से एक माने जाते थे।सापिण्ड विवाह उत्तर भारत मैं कम से कम आजभी वार्जित है किंतु, इतिहास गवाह है कि ऐसी शादियाँ हुईं और बहुत हुईं।
            कुछ लोगों ने बौधायन धर्मसूत्र का हवाला देकर ममेरी बहन से विवाह को उचित ठहराया। महाभारत-काल में न केवल श्रीकृष्ण ने अपनी ममेरी बहन रुक्मिणी को भगाकर विवाहिता पत्नी बनाया, बल्कि उनके शिष्य अर्जुन ने भी अपनी ममेरी बहन 'सुभद्रा' से विवाह किया। कहते हैं,  कृष्ण ने अपनी फुफेरी बहनों- 'मृदा' और 'मित्रविंदा' से भी शादी की थी। कोशल-नरेश प्रसेनजित अजातशत्रु के मामा थे। अजातशत्रु ने उनकी पुत्री 'वाजिरा' से विवाह किया था। जातक साहित्य से पता चलता है कि काशी और शिवि के राजकुमारों ने भी मामा की पुत्रियों से विवाह किया था। वर्धमान महावीर के अग्रज नन्दिवर्द्धन के अलावा राजकुमारी चित्रा ने भी अपने ममेरे भाई 'दीघ गामिनी' से विवाह किया था।  दक्षिण भारत में तो आज भी इसी तरह का विवाह प्रचलित है।
प्रवर :
प्र (उपसर्ग)+वृ (धातु)+ अप् (प्रत्यय)= प्रवर (विशेषण) शब्द नानार्थक है; जैसे- प्रधान, सर्वश्रेष्ठ, पूज्य, वंश-परंपरा, गोत्र-प्रवर्तक ऋषि। हिंदू-विवाह में इसका भी ध्यान रखा जाता है, अर्थात् समान प्रवर वालों में विवाह वर्जित है। देखिए गौतम, नारद तथा अापस्तम्ब के वचन-
" समान एकः प्रवरो येषां तैः सह न विवाहः।" (1.23.12)
"आसप्तमात्यं च माच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः।
अविवाह्यास्सगोत्रास्तु समानप्रवरास्तथा।।(12.7)
"समानगोत्रप्रवराम् कन्यामृदोपगम्य च।
तस्यामुत्पाद्य चाण्डालं ब्रह्मण्यादेव हीयते।।(आप० श्रौ०सू०, पृ०-116)
  प्रारंभ में 'प्रवर' का अर्थ याज्ञिक कार्य से सम्बद्ध अग्नि का आवाहन करने वाले ऋषि से था। वरणीय/ प्रार्थनीय/ आवाहनीय श्रेष्ठ ऋषि 'प्रवर' कहलाते थे। ये ऋषि उद्गाता भी कहे जाते थे। याज्ञिक अनुष्ठान में पुरोहित अपने सर्वश्रेष्ठ पूर्वज ऋषि का नाम-स्मरण करते थे, जो उनके समुदाय या समाज के प्रतीक थे। कालांतर में ये ऋषि अपने वंशजों की सामाजिक, सांस्कारिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था से जुड़ते चले गए। ये ही ऋषि आगे चलकर प्रवर-प्रवर्तक हुए। उदाहरणार्थ- कश्यपकुलोत्पन्न 55 ऋषि; यथा- आश्रयणि, मेषकीरिटकायन,उदग्रज, मठर, विनयलक्षण, देवयान, मातंगी, कात्यायन, मारीच, प्राचेय, हास्तिक प्रभृति के तीन प्रवर माने जाते हैं- (1)वत्सर, (2) कश्यप, (3) निधुव।
 वसिष्ठगोत्रियों का एक प्रवर है - 'वसिष्ठ'। भृंगवंशियों के पाँच प्रवर हैं -भृगु,च्यवन,आप्मुवान,अाैर्व तथा जामदग्नि। कुत्सगोत्रियों के तीन प्रवर माने गये हैं- अंगिरा,सदस्यु तथा पुरुकुत्स। आत्रेयायणि अग्निवेश्य आदि अंगिरावंशियों के तीन प्रवर होते हैं - अंगिरा, बृहस्पति तथा भारद्वाज। इसीतरह काण्वायन प्रभृति के पाँच प्रवर माने गए हैं - अंगिरा, बृहस्पति, भारद्वाज,गर्ग तथा सैत्य। इसीतरह अन्य प्रवर होते हैं।धर्मसूत्रों में प्रवर को लेकर मतांतर मिलते हैं।


पिंड :
           हिंदू-समाज में सपिण्ड-विवाह की वर्जना की गई है। सपिण्ड का अर्थ होता है एक ही पिण्ड अथवा शरीर से उत्पन्न। दूसरे शब्दों में, समान रक्तकण को सपिण्ड कहा गया है। पुत्र का पिता के साथ सपिण्ड संबंध होता है; क्योंकि दोनों में एक ही शरीर के अंश या रक्तकण होते हैं । पितामह,प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह प्रभृति से उसका सपिण्ड संबंध माना गया है। इसीतरह माता, मातामह(नाना), मामा, मौसी प्रभृति से भी व्यक्ति का सपिण्ड संबंध होता है। यही कारण है कि समान पिण्ड वालों में विवाह को निषिद्ध बताया गया है। लेकिन, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-स्मृति, व्यास-स्मृति, शंख-स्मृति इत्यादि धर्मग्रंथों में इसका वैकल्पिक मार्ग भी सुझाया गया है। सभी धर्मशास्त्रकारों ने एकमत से पिता की सात और माता की 5 पीढ़ियों के बाद जन्म लेने वाले वर-कन्या के बीच विवाह की अनुमति दी है। दूसरे शब्दों में, विवाह्य वर-कन्या को पिण्ड-दोष नहीं लगता।  चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से भी रक्तजन्य-दोष ( क्रमशः 7( पिता) और 5 (माता) पीढ़ियों  के बाद) समाप्त हो जाता है। इन ऋषियों के आप्त वचन।
मनु - " असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।"
याज्ञवल्क्य- "पंचमात् सप्तमादूर्ध्वं मातृतः पितृस्तथा। ( माता की 5 तथा पिता की 7 पीढ़ियों के बाद सपिण्डता का दोष नहीं लगता। )
वेदव्यास- " सवर्णा समानार्षाम् मातृपितृ गोत्रजाम्।
शंख - "विन्देत्  विधिवद्भार्यामगोत्रजाम्।"
                सारांश यह कि पिता की सात और माता की पाँच पीढ़ियों के बाद न तो सगोत्रता का दोष लगता है और न ही सपिण्डता का।  मनु के अनुसार,  माता की 4 पीढ़ियों तक ही दोष लगता है। इन्होंने विवाह का मार्ग थोड़ा और प्रशस्त कर  दिया है ।  भारत की कुछ खास जातियों में सबका एक ही गोत्र 'कश्यप' होने के कारण सगोत्र विवाह की बाध्यता है। ऐसी स्थिति में लड़का-लड़की के सपिण्ड.को ध्यान में रखा जाता है,अर्थात् दोनों का एक सपिण्ड नहीं होना चाहिए। 
             चचेरी, ममेरी, फुफेरी, मौसेरी या फुआ, मौसी आदि  के साथ विवाह को लेकर पश्चिम के देशों में शोध किए गए हैं।  अध्ययन में पाया गया कि अन्य समुदायों की अपेक्षा पाकिस्तानी और बांग्लादेशी समुदायों में शिशु-मृत्युदर 12.5 (साढे बारह) प्रतिशत से अधिक थी। अन्य समुदायों में यह दर मात्र 1% पाई गई।पता चला कि नवजात शिशु 'रिसेसिव जाइनेटिक डिसऑर्डर' नामक बीमारी से ग्रस्त थे। इसके लिए सगोत्र या सपिण्ड विवाह को उत्तरदायी ठहराया गया।संसार के कई देशों में शाही परिवार  रक्त की शुद्धता रखने के लिए कुछ अपवादों को छोड़ आपस में ही विवाह करते रहे हैं; जैस- रूस का जार-परिवार, ब्रिटेन, जापान, स्पेन इत्यादि के राजन्य परिवार।  फलस्वरूप, जार-वंशजों में 'हिमोफीलिया' नामक रक्तजन्य विकार या रतिज रोग आ गया।भारत में भी सिकगिंग नामक रोग का प्रमुख कारण यहीं हैं। जिससे लाखों लोग ग्रसित हैं|हमारे धर्मशास्त्रकारों के साथ-साथ चिकित्सकों ने भी बहिर्गोत्र, बहिर्प्रवर और बहिर्पिण्ड विवाह का परामर्श दिया है। यदि सगोत्र, सप्रवर अथवा सपिण्ड विवाह की कोई बाध्यता हो तो माता की पांच और पिता की सात पीढ़ियों के बाद उत्पन्न लड़की या लड़के से विवाह करना चाहिए। ऐसा करना न केवल नैतिक एंव चिकित्सकीय दृष्टि से उचित है।
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